नई दिल्ली मिल्खा सिंह के लिए ट्रैक एक खुली किताब की तरह था जिससे उनकी जिंदगी को ‘ मकसद और मायने ‘ मिले और संघर्षो के आगे घुटने टेकने की बजाय उन्होंने इसकी नींव पर उपलब्धियों की ऐसी अमर गाथा लिखी जिसने उन्हें भारतीय खेलों के इतिहास का युगपुरूष बना दिया। अपने करियर की सबसे बड़ी रेस में भले ही वह हार गए लेकिन भारतीय ट्रैक और फील्ड के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित करा लिया। रोम ओलिंपिक 1960 को शायद ही कोई भारतीय खेलप्रेमी भूल सकता है जब वह 0 . 1 सेकंड के अंतर से चौथे स्थान पर रहे। मिल्खा ने इससे पहले 1958 ब्रिटिश और राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीतकर भारत को विश्व एथलेटिक्स के मानचित्र पर पहचान दिलाई। मिल्खा का कोरोना संक्रमण से एक महीने तक जूझने के बाद चंढीगढ में शुक्रवार देर रात निधन हो गया। 91 वर्ष के मिल्खा ने जीवन में इतनी विकट लड़ाइयां जीती थी कि शायद ही कोई और टिक पाता। 'मैं जल्दी अच्छा हो जाऊंगा' उन्होंने अस्पताल में भर्ती होने से पहले आखिरी बातचीत में कहा था, ‘चिंता मत करो। मैं ठीक हूं। मैं हैरान हूं कि कोरोना कैसे हो गया। उम्मीद है कि जल्दी अच्छा हो जाऊंगा।’ गमों की मार सही पर हालात को हावी नहीं होने दिया स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े खिलाड़ियों में से एक मिल्खा को जिंदगी ने काफी जख्म दिए लेकिन उन्होंने अपने खेल के रास्ते में उन्हें रोड़ा नहीं बनने दिया। विभाजन के दौरान उनके माता-पिता की हत्या हो गई। वह दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में छोटे-मोटे अपराध करके गुजारा करते थे और जेल भी गए। इसके अलावा सेना में दाखिल होने के तीन प्रयास नाकाम रहे। यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि इस पृष्ठभूमि से निकलकर कोई ‘फ्लाइंग सिख’ बन सकता है। उन्होंने हालात को अपने पर हावी नहीं होने दिया। उनके लिए ट्रैक एक मंदिर के उस आसन की तरह था जिस पर देवता विराजमान होते हैं। दौड़ना उनके लिए ईश्वर और प्रेम दोनों था। उनके जीवन की कहानी भयावह भी हो सकती थी लेकिन अपने खेल के दम पर उन्होंने इसे परीकथा में बदल दिया। 'जो दौड़ हारे वही बन गई पहचान' पदकों की बात करें तो उन्होंने एशियाई खेलों में चार स्वर्ण और 1958 राष्ट्रमंडल खेलों में भी पीला तमगा जीता। इसके बावजूद उनके करियर की सबसे बड़ी उपलब्धि वह दौड़ थी जिसे वह हार गए। रोम ओलंपिक 1960 के 400 मीटर फाइनल में वह चौथे स्थान पर रहे। उनकी टाइमिंग 38 साल तक राष्ट्रीय रेकॉर्ड रही। उन्हें 1959 में पद्मश्री से नवाजा गया था। वह कॉमनवेल्थ गेम्स में व्यक्तिगत स्पर्धा का पदक जीतने वाले पहले भारतीय थे। उनके अनुरोध पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उस दिन राष्ट्रीय अवकाश की घोषणा की थी। 'उस 0.1 सेकंड का जिंदगी भर रहा मलाल' मिल्खा ने अपने कैरियर में 80 में से 77 रेस जीती। रोम ओलिंपिक में चूकने का मलाल उन्हें ताउम्र रहा। अपने जीवन पर बनी फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग’ के साथ अपनी आत्मकथा के विमोचन के मौके पर उन्होंने कहा था, ‘एक पदक के लिए मैं पूरे करियर में तरसता रहा और एक मामूली सी गलती से वह मेरे हाथ से निकल गया।’ मिल्खा ने यह दौड़ 45.6 सेकंड में पूरी की थी जबकि साउथ अफ्रीका के स्पेंस 45.5 सेकंड के साथ ब्रॉन्ज मेडल जीते थे। उनका एक और सपना अभी तक अधूरा है कि कोई भारतीय ट्रैक और फील्ड में ओलिंपिक पदक जीते। अविभाजित पंजाब के गोविंदपुरा के गांव से बेहतर जिंदगी के लिए 15 वर्ष की उम्र में मिल्खा को भागना पड़ा जब उनके माता-पिता की विभाजन के दौरान हत्या हो गई। उन्होंने पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर जूते पॉलिश किए और ट्रेनों से सामान चुराकर गुजर बसर किया। वह जेल भी गए और उनकी बहन ईश्वर ने अपने गहने बेचकर उन्हें छुड़ाया। 'एक गिलास दूध के लिए दौड़' मिल्खा को चौथे प्रयास में सेना में भर्ती होने का मौका मिला। सिकंदराबाद में पहली नियुक्ति के साथ वह पहली दौड़ में उतरे। उन्हें शीर्ष दस में आने पर कोच गुरदेव सिंह ने एक गिलास दूध ज्यादा देने का वादा किया था। वह छठे नंबर पर आए और बाद में 400 मीटर में खास ट्रेनिंग के लिये चुने गए ।इसके बाद जो हुआ, वह इतिहास बन चुका है। '...और मिल्खा बन गए फ्लाइंग सिख' उनकी कहानी 1960 की भारत पाक खेल मीट की चर्चा के बिना अधूरी रहेगी । उन्होंने रोम ओलंपिक से पहले पाकिस्तान के अब्दुल खालिक को हराया था । पहले मिल्खा पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे जहां उनके माता पिता की हत्या हुई थी लेकिन प्रधानमंत्री नेहरू के कहने पर वह गए । उन्होंने खालिक को हराया और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने उन्हें ‘उड़न सिख’ की संज्ञा दी। 'मिल्खा ने ठुकरा दिया था अर्जुन अवॉर्ड' यह हैरानी की बात है कि मिल्खा जैसे महान खिलाड़ी को 2001 में अर्जुन पुरस्कार दिया गया। उन्होंने इसे ठुकरा दिया था। मिल्खा की कहानी सिर्फ पदकों या उपलब्धियों की ही नहीं बल्कि स्वतंत्र भारत में ट्रैक और फील्ड खेलों का पहला अध्याय लिखने की भी है जो आने वाली कई पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी।
- 1929 | 20 नवंबर को अविभाजित पंजाब के गोविंदपुरा में जन्मॉ
- 1947 | विभाजन के बाद भारत आए। इस दौरान हुए दंगों में माता-पिता की हत्या।
- 1951 | सिकंदराबाद में EME में भर्ती हुए।
- 1953 | EME में ट्रेनिंग पूरी करने के बाद सेना में भर्ती हुए।
- 1956 | मेलबर्न ओलिंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया।
- 1958 | तोक्यो एशियन गेम्स में 200मीटर और 400 मीटर की दौड़ में गोल्ड मेडल जीता। 200 मीटर की दौड़ में पाकिस्तान के अब्दुल खालिद को हराया।कार्डिफ (वेल्स) में CWG में 400 मीटर की दौड़ में गोल्ड मेडल जीता। CWG में गोल्ड मेडल जीतने वाले पहले भारतीय खिलाड़ी बने। नैशनल गेम्स कटक में 200 मीटर और 400 मीटर में गोल्ड मेडल।
- 1959 | ट्रैक पर उनकी उपलब्धियों के चलते उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
- 1960 | ओलिंपिक में ट्रैक इवेंट के फाइनल में पहुंचने वाले पहले भारतीय बने। 400 मीटर की दौड़ में चौथे स्थान पर रहे। लाहौर में अब्दुल खालिद को 200 मीटर की दौड़ में हराया। पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने 'फ्लाइंग सिख' का नाम दिया।
- 1962 | जर्काता एशियन गेम्स में 400 मीटर और 4 x 400 मीटर की रीले दौड़ में गोल्ड मेडल जीता।
- 1963 | निर्मल सैन, भारतीय वॉलीबॉल टीम की पूर्व कप्तान से शादी की।
- 1964 | तोक्यो ओलिंपिक में 4 x 400 मीटर की रीले दौड़ में हीट स्टेज पर चौथे स्थान पर रहे। कोलकाता नैशनल गेम्स में 400 मीटर में सिल्वर मेडल जीता।
- 2001 | अर्जुन अवॉर्ड लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा यह काफी देर से दिया जा रहा है।
- 2013 | ऑटोबायोग्रफी जो उन्होंने बेटी सोनिया सनवाल्का के साथ मिलकर लिखी छपी। द रेस ऑफ माई लाइफ- इसी किताब पर फिल्म भाग मिल्खा भाग भी बनी।
- 2021 | कोविड 19 से संक्रमित हुए। एक महीना तक बीमार रहे। नेगेटिव रिपोर्ट आने के बाद कोविड से जुड़ी समस्याओं के चलते निधन।
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मिल्खा सिंह : संघर्षो की नींव पर उपलब्धियों की गाथा लिखने वाला उड़न सिख
Reviewed by Ajay Sharma
on
June 19, 2021
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